बारिशे रूकती नहीं
बहती रही दीवार से
गिरती रही उस फर्श पर
पग थे जहा उस यार के
बहती रही जो यह हवा
किसने कहा कब क्या कहा
कहते रहे जो लोग फिर भी
कौन सुनकर रुक गया
उडती रही फिर वो लटें
घुंघराली जो आकार में
इंदु सम चेहरे को ढकती
मानो कालिमा आकाश में
और गरजी बिजलियाँ
लगता घना प्रतिरोध है
बढ रहा एकाकी मन
क्या उसे यह बोध है
कृते अंकेश
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