है वीणा तुम कितनी हो मधुर
सम्मोहित कर लेती हो तुम अपने उन मधुर स्वरों से
पर न भूलो कितने हाथो ने किया समर्पण है खुद को
तब जा पहचानी है वह लय
वह तारो का कुछ निश्चित क्रम
जिनके छिड़ने से निकला करती है वह मधुर ध्वनि
मैं भी मोहित हो जाता हूँ
अपनी सुध बुध खो जाता हूँ
जादू ही कुछ ऐसा है
उन मधुर स्वरों का
है वीणा तुम कितनी हो मधुर
अंकेश जैन
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