इसमें क्या आश्चर्य, प्रीती जब प्रथम प्रथम जगती है
दुर्लभ स्वप्न सामान रम्य नारी नर को लगती है
कितनी गौरवमयी घडी वह भी नारी जीवन की
जब अजय केसरी भूल सुधबुध समस्त तन मन की
पद पर रहता पड़ा देखता अनिमिष नारी मुख को
क्षण क्षण रोमाकुलित, भोगता अनिर्वच सुख को
यही लग्न है वह जब नारी जो चाहे वह पा ले
उडुपो की मेखला कौमुदी का दुकूल मंगवा ले
रंगवा ले पदों की उंगलिया उषा के जावक से
सजवा ले आरती पूर्णिमा के विधु के पावक से
तपोनिष्ट नर का संचित तप और ज्ञान ज्ञानी का
मानशील का मान गर्व गर्वीले अभिमानी का
सब चढ़ जाते भेट सहज ही प्रमदा के चरणों पर
कुछ भी बचा नहीं पता नारी से उद्वेलित नर
किन्तु हाय यह उद्वेलन भी कितना मायामय है
उठता सहज जिस आतुरता से पुरुष हृदय है
उस आतुरता से न ज्वार आता नारी के मन में
रखा चाहती वह समेत कर सागर को बंधन में
किन्तु बांध को तोड़ जब ज्वार नारी में जगता है
तब तक नर का प्रेम शिथिल प्रशभित होने लगता है
पुरुष चूमता हमें अर्धनिद्रा में हम को पा कर
पर हो जाता विमुख प्रेम के जग में हमें जगा कर
और जगी रमणी प्राणों में लिए प्रेम की ज्वाला
पंथ जोहती हुई पिरोती बैठ अश्रु की माला
कृते दिनकर
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