अनकही
तेज़ी से अपने कदमो को बढ़ाते हुए ऑटो की और दोडा | "तिलक नगर चलेगा" ऑटो वाले से पूछा , हा चलेंगे, ऑटो वाला बोला | कितना लेगा? मैंने कुछ अकड़ कर कहा | २०० रूपया, ऑटो वाले ने अपनी गर्दन ऑटो से बाहर निकालते हुए बोला | . "अरे पर वहा का तो सौ रुपया ही लगता है |" में आश्चर्य की मुद्रा में आकर बोला | . लगता तो १० रुपया भी है जाओ बस के धक्के खाओ और चले जाओ , यह कहता हुआ ऑटो वाला आगे की और बढने लगा | शाम का सात बज चुका था और दूर दूर तक किसी सवारी का नामोनिशान भी नहीं दिख रहा था. भागते भूत की लगोटी ही भली | यह सोचकर मैंने आखिरी पासा फैका | अच्छा १५० लेगा. मेरे इस प्रसताव को ऑटो वाले ने इतनी निर्ममता के साथ ठुकराया, मानो बहुमत से चुनी गयी सर्कार विपक्षी पार्टी की मांगो को ठुकरा रही हो | अब तो मुझे अपनी मोलभाव की क्षमता पर शक होने लगा | पर मरते क्या न करते दलबदलू नेता की तरह तुरंत से ऑटो में घुसे और बोला चलो | अगले ही कुछ पलो में ऑटो दिल्ली की व्यस्त सडको से गुजरने लगा . सड़क के दोनों और विभिन्न ज्यामितीय आकृतियों में बनी हुई दुकाने कृत्रिम रौशनी से जगमगा रही थी | ऐसा लग रहा था मानो निशा के आगमन के लिए पूरा शहर सजा हुआ बैठा हो | रोशनियों की कटती पिटती परछाई में चेहरे की झुर्रिया साफ़ देखी जा सकती थी . कहने को तो पिछले २५ सालो से दिल्ली में ही रह रहा हूँ , लेकिन हर दिन लगता है, जैसे अनजानों की तरह एक नए शहर में भटक रहा हूँ | सुबह के साथ शहर की गलियों से पहचान बनती है ,तो रात के अंधियारे में यह अनजान मोड़ की तरह मुझे भटकाने लगती है | वैसे भी मैंने इनको समय ही कितना दिया परिचय लेने या देने का | जीवन की व्यस्तता में कहा घूमा, कुछ पता ही नहीं | अब तो इतना सोचने का समय भी नहीं मिलता | विचारो में मग्न ही थे कि ऑटो वाले ने बोला, साहब तिलक नगर | अगर ओर आगे जाना है तो ५० रुपया एक्स्ट्रा लगेगा | गुस्सा तो बहुत आई पर सोचा खामख्वाह क्यों अपना वक़्त जाया करे| उसे २०० रूपये दिए और घर की और चल दिया |
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