ankesh_writes
Sunday, September 30, 2012
जो मन चले
सपने खिले
अब रात यह कैसे ढले
खामोश सुबह रही बस खड़ी
लगती थी उसकी जरूरत नहीं
आँखों के परदे गिरते रहे
साँसों से जा के मिलते रहे
तनहा तनहा फिर हुई रौशनी
देखा था ख्वाब मैंने फिर से वही
कृते अंकेश
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