मेघ जरा अपनी अखियो को
जल में थोड़ा और उतारो
मन के सारे भेद निकालो
जग को तुम जल से भर डालो
सुबह तुमसे पूछ रही है
रात अधेरी किधर गयी है
लेकर किसका खत यह अधूरा
रवि की किरणें बरस रही हैं
तोड़ कर इन रस्मो की चादर
मन को थोड़ा और उतारो
मेघ जरा अपनी अखियो को
जल में थोड़ा और उतारो
कृते अंकेश
जल में थोड़ा और उतारो
मन के सारे भेद निकालो
जग को तुम जल से भर डालो
सुबह तुमसे पूछ रही है
रात अधेरी किधर गयी है
लेकर किसका खत यह अधूरा
रवि की किरणें बरस रही हैं
तोड़ कर इन रस्मो की चादर
मन को थोड़ा और उतारो
मेघ जरा अपनी अखियो को
जल में थोड़ा और उतारो
कृते अंकेश
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