कुछ सपनो को शायद
और सवारा जा सकता था
काले कागज पर स्याही को फिर बिखराया जा सकता था
मेरे मन को भी शायद कुछ पल
ठहराया जा सकता था
पर उन बिखरे पन्नो को नहीं छिपाया जा सकता था
अब तो कागज़ के टुकड़े ही बस इतिहास बताते है
जाने किन सदियों के किस्से थे
कब की याद दिलाते है
कही देख कर भी उनको
जब मैं खुद को यह बतलाता हूँ
उस कागज की कतरन को मैं खुद के सम्मुख पाता हूँ
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