यह कविता अभी कुछ पंक्तियो तक और चलेगी
जब तक कवि को नही मिलता एक शीर्षक
जिस पर लिख सके वह एक कविता
वैसे ऐसा नही है कि कविताएँ शीर्षक मिलने पर ही लिखी जाती हो
और वास्तविकता तो यह है की अधिकांशत: कवितायेँ शीर्षकविहीन ही होती है
जीवन की तरह
कौन जानता है अपने जीवन का शीर्षक
या अगर हम कुछ मान भी लेते है तो कितना सटीक उतरता है वह शीर्षक जीवन पर
जीवन तो जिया जाता है स्वछंद, अपनी ही धुन और अपने ही हिलोरो मैं
ठीक उसी तरह कवितायेँ भी बहती है विचारो की गंगा में
शीर्षक के बंधनो से परे
एक अन्त की ओर
कृते अंकेश