पलको से ओझल होने को अब चार कदम ही बाकी है
ढलने वाली है रात अभी
एक नयी सुबह की तैय्यारी है
उधडे से कपड़ो में बीता
यह साल रहा घोटालो का
किसने किसको कितना लूटा
बिखरे संदेशो के हवाले का
न्याय क्षेत्र भी शक की संज्ञा से बच न पाए यहाँ
लूटमार के अंतर्द्वद में विलुप्त हुआ है सत्य यहाँ
अर्थजगत की तस्वीरो में मेरा भारत उभरा है
खेलजगत की भूमि में एक नया पेज सा निखरा हैं
आज विश्व की सर्वशक्तिया भारत में आकर टिकती है
अपने बाजारो के दम पर उनकी अर्थव्यवस्था सुधरती हैं
बन स्वतंत्र ओर न्यायपूर्ण नीति से चलते जायेगे
उम्मीद हैं आने वाले कल में विकसित भारत बन जायेगे
इससे पहले मेरे क्रम में एक नया वर्ष जुड़ पाए
धन्यवाद करता हूँ सबका
इस आशा से,
उस कल में हम अपना सर्वत्र परचम लहराये
Friday, December 31, 2010
Saturday, December 25, 2010
कुछ पनघट से लाकर छोड़ा
कुछ अंखियो से पाकर जोड़ा
देख श्याम की राह में व्याकुल
गोपी का जल हुआ न थोडा
डूब गया दिन हुई है रतिया
लौट चली अब सारी सखिया
बोलो मेरे श्याम सलोने
ओर करू में कितनी बतिया
कही बावरी रात का घूघट
मुझको अपने अंक न ले ले
नटखट हुई चांदनी देखो
अपने सारे भेद न खोले
इन बिखरी आँखो का काजल
अर्धविप्त नयनो से बोले
बनी श्याम की राह में व्याकुल
इन नैनो से श्याम न खो दे
चली बावरी पवन भी देखो
मंद सौम्य सी ध्वनि सुनाती
कही श्याम की बंसी पाकर
मुझ पर तो न रोब जमाती
उठी दिवा सी स्वेत किरण जो
इंदु छवि है मेरे उर की
आलंगन अधिकार अधूरा
आकर्षित अमृत अनुभेरी
कुछ अंखियो से पाकर जोड़ा
देख श्याम की राह में व्याकुल
गोपी का जल हुआ न थोडा
डूब गया दिन हुई है रतिया
लौट चली अब सारी सखिया
बोलो मेरे श्याम सलोने
ओर करू में कितनी बतिया
कही बावरी रात का घूघट
मुझको अपने अंक न ले ले
नटखट हुई चांदनी देखो
अपने सारे भेद न खोले
इन बिखरी आँखो का काजल
अर्धविप्त नयनो से बोले
बनी श्याम की राह में व्याकुल
इन नैनो से श्याम न खो दे
चली बावरी पवन भी देखो
मंद सौम्य सी ध्वनि सुनाती
कही श्याम की बंसी पाकर
मुझ पर तो न रोब जमाती
उठी दिवा सी स्वेत किरण जो
इंदु छवि है मेरे उर की
आलंगन अधिकार अधूरा
आकर्षित अमृत अनुभेरी
नयन ताकते तेरी सीमा
निशा चली अब अपने डेरे
देख रवि कि किरण क्षितिज पर
भंवरो ने भी पंख है खोले
बनी विरह कि बेधक ज्वाला
उषा का आह्वान कराती
अंधियारे से ढके विश्व को
अपनी लाली से नहलाती
कही श्याम कि चंचल लीला
उठी सुप्त सी कोई छाया
चली कही वो अपने डेरे
छिपी लालिमा अधर में जाके
यमुनाजल रवि किरणो से खेले
क्रमश:
कृते अंकेश
देख रवि कि किरण क्षितिज पर
भंवरो ने भी पंख है खोले
बनी विरह कि बेधक ज्वाला
उषा का आह्वान कराती
अंधियारे से ढके विश्व को
अपनी लाली से नहलाती
कही श्याम कि चंचल लीला
निशा नीर सी आई हो
सम्मुख होकर भी गोपी से
वह तस्वीर छिपाई होउठी सुप्त सी कोई छाया
चली कही वो अपने डेरे
छिपी लालिमा अधर में जाके
यमुनाजल रवि किरणो से खेले
क्रमश:
कृते अंकेश
Wednesday, December 22, 2010
Tuesday, December 14, 2010
अखबारो की सुर्खियो में
कोई भ्रष्ट नेता न पाया
जाग चुका या अभी स्वप्न है
यह कैसा कलयुग है आया
समाचार की भाषा में अब
भ्रस्टाचार पर्याय बन गया
जीवन की परिभाषा में
सत्य न्याय कही दूर छिप गया
आनंदित असुरो की सेना
अपने कर्मो का न्याय तोलती
संविधान को रखे ताक पर
स्वाभिमान से सदा बोलती
राज्य हमारे पितृ सौप गए
बच्चे को राजा बनवायेगे
जनता का क्या वो जी लेगी
हम देश बेच कर खायेगे
कोई भ्रष्ट नेता न पाया
जाग चुका या अभी स्वप्न है
यह कैसा कलयुग है आया
समाचार की भाषा में अब
भ्रस्टाचार पर्याय बन गया
जीवन की परिभाषा में
सत्य न्याय कही दूर छिप गया
आनंदित असुरो की सेना
अपने कर्मो का न्याय तोलती
संविधान को रखे ताक पर
स्वाभिमान से सदा बोलती
राज्य हमारे पितृ सौप गए
बच्चे को राजा बनवायेगे
जनता का क्या वो जी लेगी
हम देश बेच कर खायेगे
Friday, December 03, 2010
स्मृति
अधूरी सी रही जो ख्वाइश कभी
वो आज जीने की ख्वाइश हुई
छिपे रंग बीते समय के तले
तस्वीरो को रंगी बनाने की ख्वाइश हुई
ढूँढो बीता समय वो गुजरा सा कल
कहा बिखरे वो चंचल से पल
वो तेरी हसी अधूरी पज़ल
में भूला बेरंग मौसम की ग़ज़ल
तराशे से मोती वो साथी पुराने
नुक्कड़ की मस्ती कई अफसाने
अधूरी सी ख्वाइश अधूरी सी हस्ती
हकीकत की दुनिया में सपनो की बस्ती
चले संग बहते समय के तराने
किस मोड़ मिलते यहाँ कौन जाने
ख्वाइश ही संजोये चले जा रहे है
अधूरे से सपने पले जा रहे है
अधूरी सी रही जो ख्वाइश कभी
वो आज जीने की ख्वाइश हुई
छिपे रंग बीते समय के तले
तस्वीरो को रंगी बनाने की ख्वाइश हुई
ढूँढो बीता समय वो गुजरा सा कल
कहा बिखरे वो चंचल से पल
वो तेरी हसी अधूरी पज़ल
में भूला बेरंग मौसम की ग़ज़ल
तराशे से मोती वो साथी पुराने
नुक्कड़ की मस्ती कई अफसाने
अधूरी सी ख्वाइश अधूरी सी हस्ती
हकीकत की दुनिया में सपनो की बस्ती
चले संग बहते समय के तराने
किस मोड़ मिलते यहाँ कौन जाने
ख्वाइश ही संजोये चले जा रहे है
अधूरे से सपने पले जा रहे है
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